आयुर्वेद भारतीय जीवन शैली के गर्भ से उत्पन्न स्वस्थ जीवन शैली की वैज्ञानिक विचारधारा है। हितायु एवं सुखायु का विचार कर स्वास्थ्य हेतु अहितकर का निर्णय आयुर्वेद सिद्धांत में प्रतिपादित किया गया है। शरीर, इन्द्रिय, मन एवं आत्मा का समत्व योग आयु कहलाती है। स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य का रक्षण आयुर्वेद का मुख्य ध्येय है। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु स्वस्थ होने की परिभाषा जानना आवश्यक है। दोषों का स्व-प्रकृतिस्थ रहना, ग्रहण किए हुए अन्न का समयानुसार पचन, शारीरिक चयापचय कारकों (रस, रक्त, माँस इत्यादि) का समभाव तथा शारीरिक मलों (मूत्र, स्वेद आदि) का समयानुसार निस्सरण शारीरिक स्वास्थ्य के लक्षण हैं। इन लक्षणों के साथ आत्म संतुष्टि, इन्द्रिय सन्तोष तथा केंद्रित मन 'स्वास्थ्य' की समग्र परिभाषा है।
स्वास्थ्य रक्षण हेतु आयुर्वेद में दिनचर्या, रात्रिचर्या एवं ऋतु अनुसार आहार तथा विहार का निर्देश है। सामाजिक स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयुक्त सदवृत्त का भी उल्लेख किया गया है। ऋतुओं के अनुसार शारीरिक दोषों (वात, पित्त, कफ) की अभिवृद्धि होती है। वृद्धि की प्रथमावस्था में दोषों का निर्हरण कर देने से भावी रोग की उत्पत्ति रोकी जा सकती है। स्वस्थ जीवन शैली का यही आयुर्वेदिक सिद्धांत है। ऋतु अनुसार बढ़े हुए दोषों को शरीर से निकालने के उपक्रमों को पंचकर्म कहा जाता है।
पंच अर्थात् पाँच; कर्म - चिकित्सा। अभिवृद्ध दोषों को शरीर से निकालने हेतु जिन पाँच चिकित्साओं वमन, विरेचन, बस्ति, नस्य एवं रक्तमोक्षण (?) का उल्लेख है, सम्मिलित प्रकारांतर में इन्हें पंचकर्म कहा जाता है। यद्यपि आचार्य चरक एवं सुश्रुताचार्य द्वारा उद्धृत पाँचवें कर्म में थोड़ा अन्तर है परन्तु अधिकतर यही पंचकर्म मान्य हैं।
सामान्यत: लोगों में पंचकर्म के प्रति विषम अवधारणाएँ हैं। पंचकर्म उपचार वस्तुत: उपरिलिखित पाँच चिकित्साओं तक ही सीमित हैं। इसके अतिरिक्त अनेक चिकित्साएँ, जिनका पंचकर्म के रूप में प्रचार किया जाता है, उपकर्मों के अंतर्गत निर्देशित हैं। स्वास्थ्य इच्छुकों में ऋतु शोधन के अंतर्गत, निर्देशित ऋतु में दोषानुसार केवल एक कर्म का ही विधान किया गया है। यथा वसंत ऋतु में वमन, वर्षा ऋतु में बस्ति तथा शरद ऋतु में विरेचन/ रक्तमोक्षण का उल्लेख है। नस्य का प्रावधान शिरोगत दोषों के शोधन हेतु किया गया है। और भी, ऋतु अनुसार शोधन के लिए दोष बल के साथ-साथ साधक के शारीरिक एवं मानसिक बल तथा प्रकृति का अवलोकन भी अवश्यंभावि होता है।
पंचकर्म आग्रह की विषयवस्तु नहीं, चिकित्सीय प्रयोग है। चिकित्सक के परामर्श एवं निर्णय अनुसार पंचकर्म का विधान ही स्वास्थ्य के लिए हितकर हो सकता है, अन्यथा नहीं।
आयुर्वेद में केवल पंचकर्म ही चिकित्सा का साधन नहीं हैं। अनेक प्रकार के उपकर्मों का प्रावधान चिकित्सा हेतु किया गया है। दिनचर्या, रात्रिचर्या एवं ऋतुचर्या के विधान अनुसार जीवनशैली में बदलाव करके भी रोगों से मुक्ति पाई जा सकती है।
आवश्यकता से थोड़ा कम परन्तु संतुलित आहार सरलतम चिकित्सीय प्रयोग है स्वस्थ रहने हेतु।
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